ग़ज़ा की ख़ुदाई

इमरान फ़ैरोज़

कहाँ हैं फ़रिश्तों के लश्कर के लश्कर?
कहाँ हैं अबाबील-ए-काबा के वादे?
कि क़िब्ला-ए-ऊला में बच्चों के जिस्मों से कर्गस के दल बोटियाँ नोचते हैं
वे यह सोचते हैं
ये सब उम्मतान-ए-पयम्बर की जंगें
यहाँ कोई काफ़िर न ज़िन्दीक़-ओ-दाहिर
ख़ुदा को फ़क़त शिर्क वालों से मतलब
ख़ुदा तो फ़क़त बुत-शिकन चाहता है
मन-ओ-सलवा वाले तो काफ़िर नहीं हैं, उन्हें तो हमारे ख़ुदा ने चुना है
पता है अबाबील-ए-काबा कहाँ है?
इराक़ी-ओ-शामी मज़ारों के ऊपर तबाही की कंकर-ज़नी कर रहा है
ख़ुदा जानता है कि पांचों नमाज़ें ग़ज़ा के मकीं उस के दर पे खड़े हैं
मगर उस ने मूसा से वादा किया था कि इब्न-ए-यहूदा पे साया करेगा
ग़ज़ा के मकीं चाहे दर पे खड़े हैं
ख़ुदा उन की तक़दीर को लिख चुका है
ऐ अक़वाम-ए-आलम! ऐ अहल-ए-कलीसा! ऐ चीन-ओ-आजम के दिलान-ए-मुहब्बत! ऐ रूस-ओ-मग़ारिब के इन्सां-परस्तो!
तुम्हारे निज़ाम-ए-ख़ुदाई के सदक़े मुहब्बत की ख़ैरात को मांगता हूँ
ग़ज़ा के मकीनों की फ़रयाद सुन लो, लहू का नविश्ता-ए-बेदाद सुन लो
कि मासूम बच्चों की चीख़ों को सुनना……….
बड़ा हौसला है
यह ज़र्फ़-ए-ख़ुदा है
जो तुम में नहीं है, जो मुझ में नहीं है………


Devanagari transliteration of Imran Feroze’s poem, غزہ کی خُدائی (Ghaza ke Khuda-i), by Gwendolyn Kirk and Abdul Aijaz.

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